Rabi Crops - रबी की फ़सल (Rabi Ki Fasal) in Hindi

रबी की फ़सल: इन फसलों की बुआई के समय कम तापमान तथा पकते समय शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फसलें सामान्यतः अक्तूबर-नवम्बर के महिनों में बोई जाती हैं। भारत में वे सभी फसलें जो सर्दी एवं वसंत ऋतू में होती है, उन्हें रबी की फसल कहा जाता है। यह अक्टूबर के अंत से मार्च या अप्रैल के बीच तक का समय होता है।

रबी की फसलों को सर्दी की फसलों के रूप में भी जाना जाता है। अक्टूबर वह समय होता है जब पूर्व – उत्तर में मानसून की शुरुआत और दक्षिण – पश्चिम में मानसून की वापसी होती है।

अक्टूबर की महिना बीजों की बुवाई का समय होता है जबकि फसलों की कटाई मार्च एवं अप्रैल माह में की जाती है. इस मौसम के दौरान फसलों को सिंचाई के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है। और इन फसलों को बढ़ने के लिए कम नमी और शांत वातावरण चाहिए होता है।
Ravi Ki Fasal: Ravi Crops

रबी की फसलों के उदाहरण

गेंहू, जौ, जई, तोरिया (लाही), राई और सरसों, पीली सरसों, अलसी, कुसुम, रबी मक्का, शिशु मक्का (बेबी कॉर्न) की खेती, चना, मटर, मसूर, रबी राजमा, बरसीम, मशरूम की खेती, आलू की खेती आदि।

1. गेहूं

गेहूं
गेहूं, मध्य पूर्व के लेवांत क्षेत्र से आई एक घास है जिसकी खेती दुनिया भर में की जाती है। विश्व भर में, भोजन के लिए उगाई जाने वाली धान्य फसलों मे मक्का के बाद गेहूं दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाले फसल है, धान का स्थान गेहूं के ठीक बाद तीसरे स्थान पर आता है। गेहूं के दाने और दानों को पीस कर प्राप्त हुआ आटा रोटी, डबलरोटी (ब्रेड), कुकीज, केक, दलिया, पास्ता, रस, सिवईं, नूडल्स आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। गेहूं का किण्वन कर बियर, शराब, वोद्का और जैवईंधन बनाया जाता है। गेहूं की एक सीमित मात्रा मे पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है और इसके भूसे को पशुओं के चारे या छत/छप्पर के लिए निर्माण सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

2. जौ

जौ
जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीन काल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसका उपयोग प्राचीन काल से धार्मिक संस्कारों में होता रहा है। संस्कृत में इसे "यव" कहते हैं। रूस, यूक्रेन, अमरीका, जर्मनी, कनाडा और भारत में यह मुख्यत: पैदा होता है। यह गेहूँ के मुकाबले अधिक सहनशील पौधा है। इसे विभिन्न प्रकार की भूमियों में बोया जा सकता है, पर मध्यम, दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। खेत समतल और जलनिकास योग्य होना चाहिए। प्रति एकड़ इसे 40 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो हरी खाद देने से पूर्ण हो जाती है। अन्यथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा कार्बनिक खाद - गोवर की खाद, कंपोस्ट तथा खली - और आधी अकार्बनिक खाद - ऐमोनियम सल्फेट और सोडियम नाइट्रेट - के रूप में क्रमशः: बोने के एक मास पूर्व और प्रथम सिंचाई पर देनी चाहिए। असिंचित भूमि में खाद की मात्रा कम दी जाती है। आवश्यकतानुसार फॉस्फोरस भी दिया जा सकता है। एक एकड़ बोने के लिये 30-40 सेर बीज की आवश्यकता होता है। बीज बीजवपित्र (seed drill) से, या हल के पीछे कूड़ में, नौ नौ इंच की समान दूरी की पंक्तियों मे अक्टूबर नवंबर में बोया जाता है।

3. जई

जई
उत्तरी/पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में जई हरे चारे में सभी पशुओं को अकेले या बरसीम के साथ 1 : 1 या 2 : 1 के अनुपात में मिलाया जाता है। इस क्षेत्र में सामान्यतया ज्वार, बाजरा, मक्का या मध्यम समय से पकने वाली धान के बाद खेती करते है। जई के लिए दोमट या भारी दोमट भूमि जहॉ जल निकास का उचित प्रबन्ध हो उपयुक्त है। प्रायः खरीफ की फसल के बाद जई की बुआई की जाती है। अतः पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व दो तीन जुताइयां कल्टीवेटर से करके पाटा लगा लें।

4. तोरिया (लाही)

तोरिया - लाही
तोरिया ‘कैच क्राप’ के रूप में खरीफ एवं रबी के मध्य में बोयी जाती है। इसकी खेती करके अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयाँ देशी हल, कल्टीवेटर/हैरो से करके पाटा देकर मिट्टी भुरभुरी बना लेना चाहिए।

5. राई और सरसों

राई और सरसों
राई/सरसों का रबी तिलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है। प्रदेश में अनेक प्रयासों के बाद भी राई के क्षेत्रफल में विशेष वृद्धि नही हो पा रही है। इसका प्रमुख कारण है कि सिचित क्षमता में वृद्धि के कारण अन्य महत्वपूर्ण फसलो के क्षेत्रफल का बढ़ना । इसकी खेती सीमित सिचाई की दशा में अधिक लाभदायक होती है। उन्न्त विधियॉ अपनाने से उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है। खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके बाद पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिए। यदि खेत में नमी कम हो तो पलेवा करके तैयार करना चाहिए। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर द्वारा एक ही बार में अच्छी तैयारी हो जाती है।

6. पीली सरसों

पीली सरसों
पीली सरसों तोरिया की तरह कैच क्राप के रूप में खरीफ एवं रबी के मध्य में बोयी जाती है। इसकी खेती करके अतिरिक्त लाभ आर्जित किया जा सकता है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयाँ देशी हल, कल्टीवेटर/हैरों से करके पाटा देकर मिट्टी भुरभुरी बना लेना चाहिए। पीली सरसों की बुआई 15 सितम्बर 30 सितम्बर तक की जानी चाहिए। गेहूँ की अच्छी फसल लेने के लिए पीली सरसों की बुआई सितम्बर के पहले पखवारे में समय मिलते ही की जानी चाहिए।

7. अलसी

अलसी
इसकी खेती मटियार व चिकनी दोमट भूमि में सफलता पूर्वक की जा सकती है। खरीफ की फसले काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहियें। तत्पश्चात कल्टीवेटर अथवा देशी हल से दो बार जुताई करके खेत अच्छी तरह सममतल कर लेना चाहियें। बुआई का समय- अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह। बीज दर- बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिये 30 किग्रा०/हे० तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 50 किग्रा०/हे०। बुआई की दूरी- बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिये 25 सेमी कूंड़ से कूंड़ तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिये 20 सेमी०कूंड से कूंड।

8. कुसुम

कुसुम
कुसुम की खेती सीमित सिंचाई की दशा में अधिक लाभदायक होती है। मुख्यतः इसकी खेती बुदेलखण्ड में की जाती है। अन्य तिलहनी फसलों की अपेक्षा पूर्वी मैदानी क्षेत्र के किसान कुसुम की खेती कम करते है। निम्न उन्नत विधियाँ अपनाने से उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है। कुसुम की अच्छी प्रजाति के. 65 है, जो 180 से 190 दिन में पकती है। इसमें तेल की मात्रा 30 से 35 प्रतिशत है और औसत उपज 14 से 15 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। दूसरी प्रजाति मालवीय कुसुम 305 है जो 160 दिन में पकती है। इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिशत है। 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

9. रबी मक्का

मक्का
रबी मक्का की खेती उत्तर/पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में की जाती है। प्रदेश के अन्य सिंचित भागों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। दोमट मिट्टी रबी मक्का के लिये उपयुक्त होती है। सामान्यतः 1-2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करके मिट्टी भुरभुरी बना लें। यदि नमी की कमी हो तो पलेवा करके खेत की तैयारी कर लें। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर द्वारा एक ही जुताई में खेत अच्छी तरह तैयार हो जाता है। रबी मक्का की उपयुक्त बुआई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक का है। रबी मक्का हेतु 20-22 किग्रा० बीज प्रति हेक्टर का प्रयोग करें जिससे लगभग 85-90 हजार पौधे प्रति हेक्टर प्राप्त हो सकें। बुआई के पूर्व बीज शोधन अवश्य करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेमी० तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-25 से.मी रखे।

10. शिशु मक्का (बेबी कॉर्न) की खेती

शिशु मक्का - बेबी कॉर्न
यह मक्का के पौधे का वह अनिषेचित भुट्टा है जो सिल्क आने के 2-3 दिन के अन्दर तोड़कर उपयोग में लाया जाता है। शिशु मक्का का उपयोग सलाद, सूप, सब्जी, अचार एवं कैण्डी, पकौड़ा, कोफ्ता, टिक्की, बर्फी लड्डू हलवा, खीर इत्यादि के रूप में होता है।

शिशु मक्का एक स्वादिष्ट व पौष्टिक आहार है तथा पत्ती में लिपटी होने के कारण कीटनाशक दवाईयों के प्रभाव में मुक्त होता है। शिशु मक्का में फास्फोरस भरपूर मात्रा में उपलब्ध है। इस के अतिरिक्त इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, लोहा व मिटामिन भी उपलबध है। कोलेस्ट्राल रहित एवं रेशों के अधिकता के कारण यह एक निम्न कैलोरी युक्त आहार है जो ह्रदय रोगियों के लिए काफी लाभदायक है।

उत्तर भारत में शिशु मक्का फरवरी से नवम्बर के मध्य कभी भी बोया जा सकता है। बुआई मेड़ों के दक्षिणी भाग में करनी चाहिए तथा मेड़ से मेड़ एवं पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी० ×15 सेमी० रखनी चाहिए। संकर किस्मों के टेस्ट भार के अनुसार प्रति हेक्टेयर 22-25 किग्रा० बीज दर उपयुक्त होती है।

11. चना

चना
दलहनी फसलों में चना का प्रमुख स्थान है। अधिक पैदावार प्राप्त करने हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है: चने के लिए दोमट या भारी दोमट, मार एवं पडुआ भूमि जहाँ पानी के निकास का उचित प्रबन्ध हो, उपयुक्त होती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 6 इंच गहरी व दो जुताइयां देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करके पाटा लगाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। छोटे दाने का 75-80 किग्रा० प्रति हेक्टर तथा बड़े दाने की प्रजाति का 90-100 किग्रा०/हेक्टर।

12. मटर

मटर
मटर हेतु दोमट तथा हल्की दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। 80-100 किलोग्राम/हेक्टर लम्बे पौधे की प्रजातियों हेतु तथा बौनी प्रजातियों के लिए 125 किग्रा० प्रति हेक्टर। अक्टूबर के मध्य से नवम्बर के मध्य तक बुवाई हल के पीछे 20 सेमी० (बौनी) 30 सेमी० (लम्बी प्रजाति) की दूरी पर करनी चाहिए। पन्तनगर जीरो टिल ड्रिल द्वारा मटर की बुवाई की जाती है।

13. मसूर

मसूर
दोमट से भारी भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त है। धान के बाद खाली खेती में मसूर विशेषकर बोयी जाती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताइयां देशी हल से करके पाटा लगाना चाहिये। समय से बुवाई अक्टूबर के मध्य से नवम्बर के मध्य तक तथा विलम्ब की दशा में दिसम्बर से प्रथम सप्ताह तक इसकी बुवाई करना उपयुक्त है। पन्तनगर जीरो टिल सीड ड्रिल द्वारा मसूर की बुवाई अधिक लाभप्रद है। समय से बुवाई हेतु 30-40 किलोग्राम तथा पिछेती एवं उत्तेरा बुवाई के लिए 40-50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त हैं।

14. रबी राजमा

राजमा
रबी ऋतु में राजमा की खेती का प्रचलन मैदानी क्षेत्र में विगत कुछ वर्षों से हुआ है। अभी राजमा के क्षेत्रफल व उत्पादन के आंकड़े उपलब्ध नहीं है। दोमट तथा हल्की दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करने पर खेत तैयार हो जाता है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी अति आवश्यक है। 120 से 140 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-40 सेमी० तथा पौधे से पौधा 10 सेमी० । बीज 8-10 सेमी० गहराई में थीरम से बीज उपचार करने के बाद डालना चाहिए ताकि पर्याप्त नमी मिल सके। अक्टूबर का तृतीय एवं चतुर्थ सप्ताह बुवाई के लिए उपयुक्त है। पूर्वी क्षेत्र में नवम्बर के प्रथम सप्ताह में भी बोया जाता है। इसके बाद बोने से उत्पादन घट जाता है।

15. बरसीम

बरसीम
बरसीम हरे चारें अपने गुणों द्वारा दुधारू पशुओं के लिये प्रसिद्ध है। उत्तरी/पूर्वी क्षेत्र में मक्का या धान के बाद इसकी सफल खेती होती है। दोमट तथा दोमट अधिक उपयुक्त है। बरसीन के लिए अम्लीय मृदा अनुपयुक्त है। खरीफ की फसल के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से फिर 2-3 बार हैरों चलाकर मिट्टी भूरभूरी कर लेना चाहिये। बुवाई के लिए खेत के लगभग 4*5 मी. की क्यारियों में बॉट ले। बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करना ठीक रहता है। देर से बोने पर कटाई की संख्या कम और चारों की उपज प्रभावित होता हे। प्रति हेक्टेयर 25-30 किग्रा० बीज बोते है। पहली कटाई मे चारा की उपज अधिक लेने के लिए 1 किग्रा० /हे० चारे वाली टा -9 सरसों का बीज बरसीन में मिलाकर बोना चाहियें। कटाई 8-10 सेमी० की जमीन के ऊपर करने से कल्ले निकलते है। बीज लेने के लिए पहली कटाई के बाद फसल छोड दे।

16. आलू

आलू
आलू समशीतोष्ण जलवायु की फसल है। उत्तर प्रदेश में इसकी खेती उपोष्णीय जलवायु की दशाओं में रबी के मौसम में की जाती है। सामान्य रूप से अच्छी खेती के लिए फसल अवधि के दौरान दिन का तापमान 25-30 डिग्री सेल्सियस तथा रात्रि का तापमान 4-15 डिग्री सैल्सियस होना चाहिए। फसल में कन्द बनते समय लगभग 18-20 डिग्री सेल्सियस तापकम सर्वोत्तम होता है। कन्द बनने के पहले कुछ अधिक तापक्रम रहने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है, लेकिन कन्द बनने के समय अधिक तापक्रम होने पर कन्द बनना रूक जाता है। लगभग 30 डिग्री सैल्सियस से अधिक तापक्रम होने पर आलू की फसल में कन्द बनना बिलकुल बन्द हो जाता है।

आलू की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका को माना जाता है, लेकिन भारतवर्ष में आलू प्रथम बार सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप से आया। चावल, गेहूँ, गन्ना के बाद क्षेत्रफल में आलू का चौथा स्थान है। आलू एक ऐसी फसल है जिससे प्रति इकाई क्षेत्रफल में अन्य फसलों (गेहूँ, धान एवं मूँगफली) की अपेक्षा अधिक उत्पादन मिलता है तथा प्रति हेक्टर आय भी अधिक मिलती है। आलू में मुख्य रूप से 80-82 प्रतिशत पानी होता है और 14 प्रतिशत स्टार्च, 2 प्रतिशत चीनी, 2 प्रतिशत प्रोटीन तथा 1 प्रतिशत खनिज लवण होते हैं। वसा 0.1 प्रतिशत तथा थोड़ी मात्रा में विटामिन्स भी होते हैं।

17. मशरूम

मशरूम
मशरूम एक पूर्ण स्वास्थ्यवर्धक है जो सभी लोगों बच्चों से लेकर वृद्ध तक के लिए अनुकूल है इसमे प्रोटीन, रेशा, विटामिन तथा खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाये जाते है ताजे मशरूम में 80-90 प्रतिशत पानी होता है तथा प्रोटीन की मात्रा 12- 35 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 26-82 प्रतिशत एवं रेशा 8-10 प्रतिशत होता है मशरूम में पाये जाने वाला रेशा पाचक होता है।

मशरूम शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढाता है स्वास्थ्य ठीक रहता है कैंसर की सम्भावना कम करता है गॉठ की वृद्धि को रोकता है, रक्त शर्करा को सन्तुलित करता है। मशरूम निम्न रोगों में लाभदायक है। हृदय के लिए, मधुमेह के रोगियों एवं मोटापे से ग्रस्त लोगों के लिए, कैंसर रोधी प्रभाव।

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